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बुधवार, 18 सितंबर 2019

चेतावनी विचार करें मनन करें

वस्तुओं और धन आदि में जो सुख दीखता है एवं सुख की आशा करते हैं, तो क्या उनमें पूरा सुख है। क्या उनके सम्बन्ध से कभी दु:ख होता ही नहीं। क्या वे सदा रहेगे ? क्या उन वस्तुओं के रहते हुए दु:ख होता ही नहीं ? ऐसा तो हो ही नहीं सकता


प्रत्यत्त उन वस्तुओं के सम्बन्ध से - अपनी मानने से लोभ-जैसा नरक-द्वाररूप भयंकर दोष उत्पन्न हो जाता है, जो जीते-जी आग की तरह जलाता ही रहता है और मरने पर सर्प आदि दु:खद योनियों तथा महान् यन्त्रणामय नरकों में ले जाता है। 


इसी प्रकार आप अपने घर के निजी प्राणियों से सुख चाहते हैं, तो  क्या वे सभी सुखी हैं ? क्या कभी दु:खी नहीं होते ? क्या वे सभी आपके साथ रहते भी हैं ? क्या रहना चाहते भी हैं ? क्या वे सभी आपके साथ रह भी सकते हैं ? क्या पहले वाले साथी सभी आपके साथ हैं ? क्या उनके मनों में और शरीरों में परिवर्तन नहीं होता है ? क्या उनमें से किसी के मन में किसी प्रकार की कमी का बोध नहीं के होता ? क्या वे सर्वदा सर्वथा पूर्ण हैं ? क्या वे सभी किसी से कुछ भी नहीं चाहते हैं ? कम से कम आपसे कुछ नहीं चाहते होंगे, सोचिये! 


जो दूसरों से अपने लिए कुछ भी चाहता है, क्या वह दूसरों की चाह पूरी कर सकता है ? क्या खुद सुख चाहने वाला औरों को सुख दे सकता है ?


सबका हर समय वियोग हो रहा है। आयु पल-पल में घट रही है। मृत्यु प्रतिक्षण समीप आ रही है। यह बातें क्या विचार से नहीं दिखती हैं ? अगर कहें कि हाँ, दिखती है तो ठीक तरह से क्यों नहीं देखते ? कब देखेंगे, किसकी प्रतिक्षा कर रहे हो ? क्या इस मोह में पड़े रहने से आपको अपना भला दिखता है ? अगर नहीं तो आपका भला कौन करेगा, किसके भरोसे बैठे हो। बतायें तो सही, ऐसे कब तक काम चलेगा ? कभी सोचा है ?


कब सोचोगें आपका साथी कौन है ? क्या यह शरीर, जिसे आप मेरा कहते हैं 'मैं' भी कह देते हैं, आपकी इच्छा के अनुसार निरोग रहेगा। क्या जैसा चाहें वैसा काम देगा ? क्या सदा साथ रहेगा, मरेगा नहीं, बतलाईये! इस तरफ आपने अपनी विवेक-दृष्टि से देखा भी है ? कब देखेंगे ? क्या इस विषय में अपरिचित ही रहना है ? क्या यह बुद्धिमानी है ? क्या इसका परिणाम और कोई भोगेगा ? चेत करे।


पहले आप जिन वस्तुओं और कुटुम्बियों के साथ रहे हैं, वे सब आज हैं क्या ? एवं आज जो आपके साथ हैं, वे रहेंगे क्या ? वे सब-के-सब सदा साथ रह सकते हैं क्या ? जरा थोड़ा ध्यान दें, विचारें तो सही!


यदि आप ठीक विचार करेंगे तो आपको ज्ञान हो जायेगा कि सदा साथ रहने वाले तो केवल एक वे परम कृपामय परमात्मा ही हैं अतः आपको उन्हीं के चरणों की शरण लेनी चाहिए।


संकलनकर्ता  


कन्हैया चौधरी, वृन्दावन, मथुरा 

शनिवार, 14 सितंबर 2019

पंचामृत

1. हम भगवान के ही हैं। 


2. हम जहाँ भी रहते हैं, भगवान के ही दरबार में रहते हैं। 


3. हम जो भी शुभ काम करते हैं, भगवान का ही काम करते हैं। 


4. शुद्ध सात्त्विक जो भी पाते हैं, भगवान का ही प्रसाद पाते हैं। 


5. भगवान के दिये प्रसाद से भगवान के ही जनों की सेवा करते हैं।


संकलनकर्ता  


कन्हैया चौधरी, वृन्दावन, मथुरा 

अमृत बिन्दु

जिसको हम सदा अपने पास नहीं रख सकते, उसकी इच्छा करने से और उसको पाने से क्या लाभ।


जो दूसरों की सेवा नहीं करता और भगवान को याद नहीं करता, वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी ही नहीं है।


अपने लिए सुख चाहने से नाशवान सुख मिलता है और दूसरों के को सुख पहुंचाने से अविनाशी सुख मिलता है।


विचार करो, क्या ये दिन सदा ऐसे ही रहेंगे।


चेत करो! यह संसार सदा रहने के लिए नहीं है। यहाँ केवल मरने-ही-मरने वाले रहते हैं फिर पैर फैलाये कैसे बैठे हो ?


शिष्य दुर्लभ है, गुरू नहीं। सेवक दुर्लभ है, सेव्य नहीं। कज्ञासु दुर्लभ है, ज्ञान नहीं। भक्त दुर्लभ है, भगवान नहीं।


संसार विश्वास करने योग्य नहीं है, प्रत्यत सेवा करने योग्य है। 


जैसे मनुष्य शरीर बार-बार नहीं मिलता, ऐसे ही मनुष्य शरीर मिलने पर भी सत्संग बार-बार नहीं मिलता।


संसार का काम तो और कोई भी कर लेगा, पर अपने कल्याण का काम तो खुद को ही करना पड़ेगा, जैसे भोजन और दवाई खुद को ही लेनी पड़ती है। 


संसार के काम में तो नफा और नुकसान दोनों होते हैं, पर भगवान के काम में नफा-ही-नफा होता है, नुकसान होता ही नहीं।


पारमार्थिक उन्नति करने वाले की लौकिक उन्नति स्वत: होती है। 


कुछ भी लेने की इच्छा भयंकर दु:ख देने वाली है।


आप अपनी अच्छाई का जितना अभिमान करोगे, उतनी ही बुराई पैदा होगी। इसलिए अच्छे बनो, पर अच्छाई का अभिमान मत करो।


संकलनकर्ता  

कन्हैया चौधरी, वृन्दावन, मथुरा 

गुरुवार, 12 सितंबर 2019

प्रेरक प्रसंग : सेवायुक्त समर्पण

आँधी ने मन्द वायु से कहा - 'शक्तिवान बनने में ही गौरव है, मैं जब अपने आवेश के साथ चलती हूँ तो पेड़ उखड़ जाते हैं, प्राणियों की मेरे सामने ठहरने की हिम्मत नहीं होती। सभी अपना बचाव करने के लिये छिपते-फिरते हैं। जिन्दगी ऐसा जीनी चाहिए कि लोग उसका लोहा माने और डरते रहें।'


मंद वायु बोली - 'दीदी तुम सामर्थ्यवान हो। जो चाहो सो कर सकती हो, पर मुझे इसमें ही आनन्द आता है। धीमी चलती हूँ ताकि किसी को कष्ट न हो, निरन्तर बहती हूँ ताकि सेवा के आनन्द से क्षणभर के लिये भी वंचित न रहना पड़े। मुरझाए चेहरों पर शीतल सुगंधित पंखा झलते हुए जो संतोष प्राप्त होता है, मेरे लिये वही सब कुछ है। तुम्हें शक्ति का हर्ष प्रिय लगता है, पर मेरे लिए तो सेवायुक्त समर्पण ही सब कुछ है।'

अपने आपको लोगों की पसन्द बनायें

ज्यादातर मामलों में पसन्द किये जाने के तत्व को तकनीकी योग्यता से ज्यादा महत्व दिया जाता है। जैसे कि इसके साथ काम करना पसन्द नहीं है। या उसके साथ जाना, बैठना या बात करना मुझे पसन्द नहीं आदि हर रोज दस में से नौ बार पसन्द किये जाने की बात सबसे पहले की जाती है। इसलिये अपने आपको लोगों की पसन्द बनायें। अपने आपको लोगों में पसन्दीदा बनाने के दस सूत्र हैं।


1. नाम याद रखने की आदत डाले अगर आप ऐसा नहीं करते हो तो सामने वाले को यह लग सकता है कि आपकी उनमें कोई रुचि नहीं है।


2. एक ऐसे आरामदेह व्यक्ति बनिये जिसके आप के साथ होने पर कोई तनाव में न रहे एक खुश मिजाज अनुभवी टाईप के आदमी बनिये।


3. अपने दिमाग को ठण्डा करने की आदत डालिये ताकि कठिन परिस्थितियाँ आपको उत्तेजित या परेशान न करें क्योंकि बुद्धिमान मनुष्य अपने दिमाग का मालिक होता है और मूर्ख उसका गुलाम।


4. बड़बोले मत बनिये सामने वाले को यह एहसास न होने दें कि आप खुद को सर्वज्ञानी समझते हैं। 


5. दिलचस्प बनने की आदत डालिये ताकि लोग आपके आसपास रहना पसन्द करें। 


6. अपने व्यक्तित्व से चुभने वाले तत्वों को बाहर निकाल फेंकिये।


7. सच्ची धार्मिक भावना से हर गलत फहमी को दूर करने की पूरी कोशिश करें अपनी शिकायतों को नाली में बहा दें।


8. लोगों को पसन्द करने का अभ्यास करें और कुछ समय बाद आप सचमुच उन्हें पसन्द करने लगेंगे।


9. किसी उपलब्धियों या सफलता पर बधाई देने का कोई भी पल मत गँवाइये नहीं द:ख या निराशा में सम्वेदना जताने का अवसर खोइये।


10. लोगों को आध्यात्मिक शक्ति दीजिये और वे आपको पसन्द करने लगेंगे।



श्री राधेश्याम चौधरी

बुधवार, 11 सितंबर 2019

तैमूर लंग आक्रांता को मारने वाले जाट सेनापति चौधरी हरबीर सिंह गुलिया

बात 1363 की है जब तैमूर लंग ने भारत में पंजाब के रास्ते भारत में घुसा तो जाटों के ये आभाष हो गया था कि तैमूर लंग पंजाब के बाद सीधा उत्तर प्रदेश पर आक्रमण करेगा क्यों कि उत्तर प्रदेश उस समय भी काफी समृद्ध राज्य था।


उसी वक्त जाटों ने तैमूर लंग से निपटने के लिए सेना तैयार की जिसमे करीब चालीस हजार महिलाएं भी थीं जो सभी शस्त्रों से सुसज्जित थीं। महिलाएं दिन में तैमूर लंग की सेनाओं से युद्ध करतीं और रात में वे अपनी सेना के लोगों के लिए खाना बनातीं थीं। 


तैमूर लंग की सेना दिन में युद्ध करके थक जाती थी परन्तु जाट तो रात में भी उनसे युद्ध करते रहते थे।  हरिद्वार के करीब पथरीगढ़ (ज्वालापुर) में जाटों का और तैमूर लंग के बीच घमासान युद्ध हुआ और तैमूर लंग की सेना के दाँत खट्टे कर दिए। 


तैमूर लंग को समझ में आ गया कि जाटों से युद्ध में पार पाना असंभव है और उसकी सेना युद्ध के मैदान से भाग खड़ी हुई लड़ाई के दौरान ही जाट सेना के सेनापति हरबीर सिंह गुलिया ने तैमूर लंग की छाती पर अपने भाले से ऐसा वार किया कि वो घायल होकर घोड़े से गिर गया और युद्ध के मैदान से भाग गया। उस भाले का वार इतना तीव्र और गहरा था कि समरकंद के रास्ते में ही तैमूर लंग की मृत्यु हो गयी और कुछ लोगों का मानना है कि उसने समरकंद में जाकर तैमूर लंग की मृत्यु हुई थी। 


तो भाइयो ऐसे हैं हमारे  जाट वीर इसलिए जब जाट समाज एक हो जाता तो फिर किसी भी आक्रांता या अत्याचारी की इतनी हिम्मत नहीं कि भारत की तरफ कोई आँख उठा कर देख सके। 

तपश्या का प्रभाव एक लघु कथा

जंगल में एक ऋषि तपस्या कर रहे थे। एक दिन पेड़ पर बैठी एक चिड़िया ने उन पर बीट कर दी। ऋषि ने नेत्र खोल क्रोध से चिड़िया की ओर देखा। दृष्टि की तप से चिड़िया जलकर राख हो गई। ऋषि बहुत प्रसन्न हुए। गर्व से झूमते ऋषि भिक्षा के लिये नगर की ओर चल पड़े। एक घर के द्वार पर भीख की अलख जगाई। ऋषिवर-जरा प्रतीक्षा करें। 


ऋषि ने कुछ देर बाद फिर अलख जगाई। प्रभु में पति को भोजन करा रही हूँ, पूर्ण होते ही द्वार पर आती हूँ, अन्दर से आवाज आयी। ऋषि क्रोध से लाल-पीले हो गये। पति के सामने मेरी उपेक्षा। गुस्से से थर-थर काँपते कमण्ड से हाथ में जल ले ऋषि श्राप देने वाले ही थे कि अन्दर से नारी के हँसने की आवाज आई। मुझे भी क्या चिड़िया समझ लिया है कि आपके श्राप से भस्म हो जाऊँगी?


ऋषि हैरान रह गये। जंगल में घटी घटना के बारे में इस गृहस्थ नारी को कैसे पता चला। तब नारी ऋषि के लिये भिक्षा लेकर द्वार पर आ गयी। ऋषि ने उससे पूछा । नारी ने कहा जबाव चाहिये। तो बाजार में कसाई की दुकान पर चले जाओ। कसाई जबाव देगा।


ऋषि कसाई के पास पहुँचे, उन्हें देखते ही कसाई हँसा, उस बहन ने आपको मेरे पास भेज दिया। क्षणभर बैठो इस ग्राहक को माँस तोलकर दे दूँ फिर आपसे बात करूँगा। कसाई ने अपना काम खत्म कर हाथ पोंछा और ऋषि से बोला-पूछिये आप क्या पूछना चाहते हैं? 


ऋषि बोले-हमने वर्षों में तपस्या की और वरदान में पाया की जिसकी ओर भी क्रोध से देख लें वह भस्म हो जाये। पर नगर की वह साधारण स्त्री जंगल में चिड़िया के भस्म होने की बात घर बैठे-बैठे कैसे जान गई। तुम दुकान पर बैठे-बैठे कैसे जान गये कि उस नारी ने हमें तुम्हारे पास भेजा है।


कसाई बोला-सृष्टि का एक नियम है कि आत्मा शरीर धारण करके संसार में आती हैं। उसके समाज और परिवार के प्रति दायित्व होते हैं। जिनका वह निर्वाह करता है। आप संसार पर परिवार के प्रति कर्तव्यों से मुख मोड़कर जंगल के एकान्त में तप करने चले गये। बिना यह सोचे कि आपके न होने से आपके परिवार पर क्या बीती होगी। पर बदले में क्या पाया क्रोध और अहंकार से बढकर किसी के प्राण लेने का वरदान। लेकिन किसी के प्राण लेना तो बहत आसान है, किसी को प्राण देकर दिखाइये। ऋषि चुपचाप कसाई के बात सुनते रहे।


कसाई आगे बोला-जिस नारी को आप साधारण गृहस्थन समझते हैं वह अपने परिवार और पति के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने के कारण सही मायने में तपस्वी है। आप मेरे काम को नीच समझते हैं, लेकिन यह मेरी आजीविका का साधन है। जिसके माध्यम से मैं अपने परिवार का भरण-पोषण करता हूँ। मैं पूरी ईमानदारी से अपना काम करता हूँ। ग्राहक मेरी प्राथमिकता है। ईमानदारी से काम और संसार के प्रति कर्तव्यों का पालन करना ही सच्ची तपस्या है।

मंगलवार, 10 सितंबर 2019

सज्जनता का सीरप

यदि आप सज्जन बनना चाहते हैं तो निम्न लिखित काढ़े का सेवन करने से आपके जीवन में शीघ्रातिशीघ्र सज्जनता आ सकती है।


आवश्यक सामिग्री:

सच्चाई के पत्ते एक तोला, ईमानदारी का जड़ ढाई तोला, उदारता का अर्क एक बड़ी चम्मच, परोपकार का बीज तीन तोला, रहम दिल का छिलका दो तोला, दानशीलता का सिरका तीन चम्मच, सत्संग का रस एक बड़ी चम्मच।


बनाने की विधि:

इन सभी सामिग्री को परमात्मा की हाँढ़ी में पकाकर, शुद्ध मन के कपड़े से छानकर, मस्तिष्क की शीशी में भर लें।


सेवन विधि:

इसको प्रतिदिन संतोष के गुलकन्द के साथ, इन्साफ की चम्मच से तीन बार सुबह, दोपहर, शाम को लें।


परहेज:

क्रोध की मिर्च, अहंकार का तेल, स्वार्थ का घी, धोखे का पापड़ इन सबसे परहेज करना है।



परिवार वही जिन्दा है जिसका इकलास जिन्दा है।
साहूकार वही जिन्दा है जिसका विश्वास जिन्दा है।।


ये जिन्दगी की निशानी होती है दोस्तों।
कौम वही जिन्दा है जिसका इतिहास जिन्दा है।।

अच्छा लगे तो बढ़िया वरना हंसने में क्या हर्ज है

एक बार एक चिड़िया ने कुछ हटकर करने की सोची और भंयकर जाड़े में निकल पड़ी ध्रुवों की ओर। रास्ते में उससे सर्दी सहन न हुई और उसके पंख अकड़ने लगे। धीरे-धीरे उसके पूरे शरीर पर बर्फ की परत जम गई और वह सर्दी से बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ी।


तभी एक घोड़ा वहाँ से गुजरा और उस पर अपना बहुत सा चारा गिराकर चला गया। चारे की गर्मी से चिड़िया को होश आ गया और वह जान बचने की खुशी के मारे चहकने और गाने लगी।


उसी वक्त वहाँ से एक बिल्ली गुजर रही थी। उसने सड़क पर पड़े चारे के ढेर के नीचे से आती चिड़िया की आवाज सुनी और चारा हटाकर चिड़िया को एक ही बार में खा डाला। 

1. अपने लक्ष्य हमेशा अपनी सामर्थ्य के अनुसार बनायें।


2. जिसके कारण आप अचानक किसी बोझ से दब जाते हैं, वह जरूरी नहीं कि आपका दुश्मन ही हो।


3. जो आपको उस बोझ से मुक्त करता है, वह जरूरी नहीं कि आपका भला चाहता हो।


4. अगर आप भूसे (चारा) जैसे बेवकूफों के बीच में हैं और खुश हैं, तो बेहतर है कि अपना मुँह बन्द रखें।


संकलनकर्ता - श्री राधेश्याम चौधरी

जीवन को श्रेष्ठ एवं सुखी बनाने हेतु कुछ वैदिक शिक्षायें

सहृदयं सौमन्यम विद्वेणं कृणोमि वः।।
अन्योऽन्येमिः हर्षत वत्स जातामिवान्या।। (अर्ध्व 3/10/1)

अर्थ- हम पारस्परिक विद्वेष को त्याग कर सहृदय मनस्वी तथा उत्तम स्वभाव वाले हों। एक दूसरे को सदैव प्रेम की दृष्टि से देखें तभी हम सुखी रह सकेंगे।

यद् वदामि मधुमत तद्वदामि यदीक्षेतद्वनन्तिमा।
त्विषीमानस्म् जूतिमानवान्यान हन्मिदोधर ।। (अर्ध्व 12/1/58)

अर्थ - मैं सदैव अपने मुख से मीठे वचन बोलूँ (मन में दैवी गुण धारण करता हूँ) सभी मुझसे प्यार करें। मैं दिव्य प्रकाश को हृदय में धारण करूँ। जो बुरे तत्व मेरे समीप आयें, उनसे मैं सदा सुरक्षित रहँ। 

पिनेश नाकं स्तुभिर्दमूनाः।। (ऋग्वेद 1/68/10)

अर्थ - याद रखिये, संयमी मनुष्य स्वर्ग को भी जीत लेते हैं। सुख शान्तिमय रहने का उपाय अपनी कुप्रवृत्तियों को संयम में रखना है।

अपवक्ता हृदयाविजश्चित्।। (ऋग्वेद 1/24/8)

अर्थ - उन कुवासनाओं और मानसिक पापों को त्याग दीजिये जो आत्मा को कष्ट दें। काम, क्रोध, भय, चिन्ता इत्यादि के कुविचार सदैव त्यागने योग्य हैं।


संकलनकर्ता - श्री रामदेव वर्मा
संरक्षक-नगर जाट सभा, वृन्दावन

महाराजा सूरजमल का संक्षिप्त परिचय

महाराजा बदन सिंह के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में महाराजा सूरजमल का उदय हुआ। आप में असाधारण साहस, युद्ध-कौशल और राजनैतिक सूझबूझ एवं योग्यता थी जिसका प्रदर्शन सन् 1733 ई. में अपने पिता के समक्ष खेमकरण सोगरिया से भरतपुर की गद्दी हस्तागत कर तथा आमेर राज्य के उत्तराधिकार युद्ध में मराठा-मुगल तथा राजपूतों की सम्मिलित शक्ति को परास्त कर ईश्वरी सिंह को आमेर का सिंहासन सन् 1742 ई. में दिलाया था।


सन् 1757 ई. में राजा बदन सिंह की मृत्यु के पश्चात् महाराज सूरजमल को हिन्दू शास्त्रानुसार विधिवत मंत्रोच्चार के साथ सिंहासन पर बैठाया गया। आप राजा बदन सिंह के 26 पुत्रों में पाँचवें थे।


महाराजा सूरजमल ने विदेशी आक्रांताओं से उत्तरी भारत को बचाने हेतु हरियाणा, पंजाब एवं राजस्थान के शासकों का पुष्कर में सम्मेलन बुलाया जिससे एक संगठन हो तथा मराठों से उत्तरी भारत को बचाया जा सके।


इसे मूर्त रूप देने में सर्वप्रथम सन् 1761 ई. में आगरा के किले को छीन लिया। महाराजा जवाहर सिंह ने मुसावी खाँ से फर्रुखनगर किला जीत लिया। रेवाड़ी, गढ़ी हरसू, रौहतक, बहादुर शाह से बहादुरगढ़, सराय वंसत, सुहाना आदि पर महाराजा का अधिकार हो गया। दिल्ली के आस-पास की फौजदारी प्राप्त करने के उद्देश्य से नजीबुद्दौला से युद्ध हुआ और 25 दिसम्बर सन् 1763 ई. को महाराजा का स्वर्गवास हो गया। आप समदृष्टा थे, जाति-पाति नहीं मानते थे। उन्होंने मंदिरों के साथ-साथ मस्जिद का भी निर्माण कराया था।


सूर्यवीर महाराजा सूरजमल की विजय गाथा 

सूरज के सम सूरजमल तेजोमय शक्ति प्रबल था।
बृजमण्डल का रक्षक बन पैदा हआ वीर धवल था।।

श्यामगात ऊँचा ललाट नेत्रों में चमक बड़ी थी।
हिम्मत क्या अरि चक्षु उठादे तडिता दमक पड़ी थी।।

उम्र किशोरावस्था से रण करने ललक खड़ी थी।
माँडू, वगरू विजय किए अग्रिम पग सनक चढ़ी थी।।

 जयपुर पक्ष ईश्वरीसिंह का ले रण किया सबल था।
सूरज के सम सूरजमल तेजोमय शक्ति प्रबल था।।

नवाब फतह अलीखान जो कोल का था अधिकारी।
मदद हेतु रविमल ढिंग आया पहुँच गया हितकारी।।

बल्लमगढ़ के बालू जाट को दिया संरक्षण भारी।
खान सलावत कर परास्त मेंटी उसकी मक्कारी।।

फतहगढ़ को फतह किया अरिमर्दन हुआ डबल था।
सूरज के सम सूरजमल तेजोमय शक्ति प्रबल था।।

सन् 1752 का था वर्ष महा सुखदाई।
कुँवर बहादुर राजेन्द्र की पदवी सूरजमल पाई ।।

मिली फौजदारी मथुरा की जो वीरता दिखाई।
बहादुर सिंह घसेरा बड़गूजर की करी सफाई ।।

किया अधीन घसेरा झण्डा फहरा ब्रजमण्डल था।
सूरज के सम सूरजमल तेजोमय शक्ति प्रबल था।।

जाट-मराठा युद्ध हुआ नहीं तन में दहशत मानी।
शौर्य वीरता देख हृदय घबड़ाते थे अफगानी।।

होडल, पलवल विजय किये अलवर जीता लासानी।
अब्दाली ने जाट शक्ति प्रतिभा मेटू दिल ठानी।।

चौमुहाँ पर अड़ गया जवाहर भागा तुरत मुगल था।
सूरज के सम सूरजमल तेजोमय शक्ति प्रबल था।। 

हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई धर्म समान किये थे।
समदष्टा महाराजा के गुण हृदय ईश दिए थे।।

दिल्ली विजय करूँ रण रोपा ऐसे जाम पिए थे।
सुबह वक्त धोखे से मुगलों ने नृप मार लिए थे।।

"महेन्द्र सिंह" पच्चीस दिसम्बर मुरझा गया कमल था।
सूरज के सम सूरजमल तेजोमय शक्ति प्रबल था।।

सोमवार, 9 सितंबर 2019

स्वतन्त्रता आन्दोलन के महान क्रान्तिकारी राजा महेन्द्र प्रताप का संक्षिप्त परिचय

राजा महेन्द्र प्रताप जी का जन्म दिसम्बर सन् 1886 ई. को अलीगढ़ जनपद के मुरसान राज्य में राजा घनश्याम सिंह जी के तृतीय पुत्र के रूप में हुआ था। आपको हाथरस के राजा हरनारायण सिंह जी ने गोद ले लिया था। राजा घनश्याम सिंह अत्यन्त ही वीर, पराक्रमी एवं साहसी पुरुष थे, वे शेर का शिकार आमने - सामने ताल ठोक कर करते थे। इसीलिये उनके पुत्र राजा महेन्द्र प्रताप की निर्भीकता उनके पिता की देन है।


राजा हरनारायण सिंह के दत्तक पुत्र होने के कारण महेन्द्र प्रताप एक साधारण बालक होते हुए भी युवराज थे और हाथरस राज्य के स्वामी थे। जब उनकी आयु 8 वर्ष थी उन्हें शिक्षा के लिये पब्लिक स्कूल भेजा गया, किन्तु कुछ समय पश्चात् सर सैय्यद अहमद खाँ द्वारा स्थापित मुहम्मदन ऐंग्लो औरियन्टल कॉलेजिएट स्कूल में प्रवेश दिलाया गया। सर सैय्यद उस समय के प्रसिद्ध सुधारक एवं शिक्षा प्रेमी थे। स्कूल में पढ़ते समय ही राजा हर नारायण सिंह की मृत्यु हो गई और राजा महेन्द्र प्रताप को ही रियासत की देखभाल का कार्य करना पड़ा।


राजा महेन्द्र प्रताप का विवाह कॉलेज में पढ़ते समय ही हो गया था। जींद राज्य से इनकी सगाई हुई और सोने का एक पर्स इन्हें दिया गया। दो स्पेशल ट्रेनों में बारात जींद राज्य की राजधानी संगरूर गई और जींद के महाराजा ने विवाह में पर्याप्त धनराशि व्यय की। जब कभी राजा साहब अपनी ससुराल जींद जाते तो इन्हें ग्यारह तोपों की सलामी दी जाती थी और स्टेशन पर स्वागतार्थ सभी अफसर उपस्थित रहते। सन् 1909 में प्रथम सन्तान के रूप में एक पुत्री पैदा हुई जिसका नाम 'भक्ति तथा सन् 1913 ई. में एक पुत्र पैदा हआ जिसका नाम 'प्रेम प्रताप' रखा।


देश-विदेश की सुदीर्घ यात्राओं ने राजा साहब के जीवन में एक नवीन परिवर्तन उत्पन्न किया। अपने देश की गुलामी से उनका मन अन्दर से खिन्न रहने लगा। एक तरफ राजा-महाराजाओं का भोग-विलास से भरा वैभवपूर्ण जीवन तथा दूसरी ओर दरिद्रता से परिपूर्ण किसानों, मजदूरों, कामगारों का व्यथापूर्ण जीवन उनकी आँखों में खटकने लगा। उन्हें अपने वैभवपूर्ण जीवन से वैराग्य पैदा हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि जब देश की 80 प्रतिशत जनता गरीबी में फंसी पराधीनता में कराह रही है, तो मुझे इस भोग विलास का क्या अधिकार है।


विदेश यात्रा के पश्चात् से राजा साहब के मन में एक ऐसे विद्यालय की स्थापना की भावना उत्पन्न हुई जिससे शिक्षा प्राप्त कर बालक लघु उद्योग-धन्धों के द्वारा स्वावलम्बी बन सकें। इसके लिये उन्होंने अपने आवास महल में ही विद्यालय खोलने का संकल्प किया, जिसमें उन्होंने तय किया कि नि:शुल्क शिक्षा दी जायेगी तथा गरीब बच्चों के आवास व भोजन की व्यवस्था भी नि:शुल्क होगी जिसे उन्होंने सन् 1909 ई0 में साकार रूप दिया।


श्रावण मास के झूला के समय तकनीकी विद्यालय की वृन्दावन में स्थापना हुई। विद्यालय का नामकरण संस्कार पुत्रोत्सव के समय नामकरण की विधि से किया गया। निमन्त्रण पत्र में पुत्र के नाम की बात लिखी गई थी। विधिपूर्वक यज्ञ किया गया जिसमें पं. मदनमोहन मालवीय भी सम्मिलित हुये। यज्ञ समाप्ति  पर जब मित्रों ने पुत्र को देखने की इच्छा व्यक्त की तो उन्हें यह जानकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि राजा साहब के कोई पुत्र नहीं है फिर यह नामकरण कैसा? सभी उपस्थित जनसमूह यह सुनकर स्तब्ध रह गया जब राजा साहब ने बताया कि मेरा मानस पुत्र यह विद्यालय है। इस विद्यालय का ही नामकरण होना है। मित्रों ने विद्यालय का नाम 'राजा महेन्द्र प्रताप विद्यालय' रखने का सुझाव दिया जिसे उन्होंने अस्वीकार करते हुए 'प्रेम महाविद्यालय' नाम रखा।


सन् 1911 ई. में महाविद्यालय को स्वावलम्बी बनाने के उद्देश्य से दूसरी बार यूरोप की यात्रा प्रारम्भ की। लन्दन, बकिंघम, लीड्स, शेफील्ड, मेनचेस्टर, एडनिवर्ग, ग्लासगो, पेरिस, बर्लिन एवं ज्यूरिख की यात्रा करके वहाँ की तकनीकी संस्थाओं का अवलोकन किया। विद्यालय का खर्च चलाने हेतु 36000 रु. वार्षिक आय के 5 गाँव दान स्वरूप दिये।


विदेश यात्रा से वापस आने के पश्चात् प्रथम विश्व युद्ध प्रारम्भ होने का समाचार राजा साहब को देहरादून से वृन्दावन आते समय रेलगाड़ी में प्राप्त हुआ। वृन्दावन पहुँचने के पश्चात् उन्होंने संकल्प कर लिया कि उन्हें चाहे कितना भी कष्ट उठाना पड़े, विदेश जाकर युद्ध की स्थिति को समझना तथा स्थिति का लाभ उठाकर भारत को स्ततन्त्र कराना है।


9 अगस्त सन् 1946 ई. को राजा साहब सिटी ऑफ पेरिस जहाज से मद्रास आये। आपने 31 साल 6 माह पश्चात् भारत में कदम रखा। आप मद्रास से सीधे वर्धा पहुँचे और महात्मा गाँधी से भेंट की। आपने सन् 1929 ई. में ही 'वर्ल्ड फैडरेशन मासिक पत्र' का प्रकाशन कराया। आपका त्याग, तपस्या, धैर्य सदैव स्मरणीय रहेगा।


आप सन् 1957 ई. से सन् 1962 ई. तक लोक सभा के सदस्य के रूप में निर्वाचित हुए। राजा साहब भारतीय फ्रीडम फाइटर एसोसियेशन (स्वतन्त्रता सेनानी संगठन) के ' अध्यक्ष भी रहे तथा अखिल भारत वर्षीय जाट महासभा के प्रधान पद को भी सुशोभित किया। आपने अपने प्रेम-धर्म सिद्धान्त के आधार पर सभी को प्रेम से रहने का उपदेश दिया। वर्तमान में भी वर्ल्ड फैडरेशन समाचार-पत्र द्वारा आपके प्रेमधर्म के सिद्धान्तों को घर-घर पहुँचाया जा रहा है। आप 29 अप्रैल सन् 1979 ई. को अपना पार्थिव शरीर त्याग कर इस संसार से स्वर्ग पधार गये।

शनिवार, 7 सितंबर 2019

अमृत वचन जो आपके जीवन में लाभ पहुँचा सकते हैं

मुस्कराहट, घर में सुख, व्यापार में ख्याति और मित्रों में प्रेम उत्पन्न करती है। ये थके हुए व्यक्ति को गुलाब के फूल, हतोत्साही के लिये जाड़ों की धूप और कष्ट पाने वाले व्यक्ति को आशा की किरण प्रदान करती है। अत: प्रत्येक कार्य मुस्कराहट के रंग में डूबकर करना चाहिए।


मनुष्य ने भाग्य तथा दुर्भाग्य का विकास न तो किया है और न कभी करेगा। अरे ये तो मिथ्या कल्पना है। वही असफल होता है जो भाग्य के भरोसे पड़ा रहता है। सक्रियता भाग्य को जगाती है। क्रियात्मक शक्ति को बलमत बनाती है, सकारात्मक बनें और विशेष मनुष्य का दर्जा ग्रहण करें।