अनुमानतः पन्द्रहवीं सदी के अन्त में अनेक गोत्री जाटों के विशाल कबीले राजनैतिक संघर्षों से लाभ उठाकर पंजाब, हरियाणा और राजपूताना (राजस्थान) को छोड़कर देहली और आगरा के मध्य भाग में यमुना नदी के दक्षिण-पूर्व हिण्डौन तक तथा मेवात भूखण्ड में आकर बस गये थे। यद्यपि इस विशाल भूखण्ड पर इन जाट कबीलों ने साधारण कृषक व मजदूर के रूप में प्रवेश किया था, परन्तु जन-बाहुल्य, जातीय संगठन के साथ कठोर परिश्रम, कुशलता और प्रगतिशील कृषक होने के साथ इन्होंने पुराने कमजोर तथा आलसी जमींदार अथवा काश्तकारों को बेदखल करके नियमित लगान देने के अनुबन्ध पर अधिकांश जमींदारियाँ प्राप्त कर ली।
अलीगढ़ (कोइल), नौहझील (नवराष्ट्र), परगना, जलेसर तथा माँट में नौहवार गोत्री जाट, महावन में पचहरा, कुन्तल, रावत, गोधरा, डागर गोत्री जाट, सोंख, राया, सोनियाँ (महावन) और हसनपुर में ठकुरेले गोत्री जाट, फरह, फतेहपुर सीकरी और मथुरा में अनेक गोत्री जाट परिवारों ने अपनी बस्तियाँ बसाई। सम्राट अकबर की नैतिक परम्परा और सम्राट जहाँगीर की उपेक्षा नीति ने इन परिवारों को सुव्यवस्थित बना दिया। एक-दूसरे जाट गोत्रों के साथ वैवाहिक सूत्रों में बँधकर ये परिवार शान्तिपूर्वक अपने पैर जमाने के साथ-साथ अनेक नगला, गाँव, कस्बा आबाद किये। धन-जन की रक्षा के लिये अनेक प्रमुख गाँवों को कच्ची मिट्टी की गढ़ियों का रूप दिया।
सत्रहवीं शताब्दी के प्रथम दो दशकों में यह जाट कबीले आगरा, मथुरा, कोइल (अलीगढ़) तथा पश्चिम में मेवात की पहाड़ियों तक तथा आमेर (जयपुर) राज्य की सीमा तक, उत्तर में दिल्ली से 20 मील दूर मेरठ, होडल, पलवल से लेकर दक्षिण से चम्बल नदी के पार गोहद तक फैल चुके थे। इससे यह विशाल भूखण्ड जटवाड़ा कहलाने लगा।
राठौर राजपूतों के राजनैतिक प्रभुत्व और मरुभूमि के दुर्भिक्षों ने सोलहवीं शताब्दी के अन्त में ठेनुआँ गोत्री जाट कबीलों ने सरदार माखनसिंह के नेतृत्व में बीकानेर की मरुभूमि को छोड़कर अपनी मवेशियों के साथ ब्रज प्रदेश (यमुना पार) जावरा और टप्पल (उत्तर प्रदेश) को अपना केन्द्र बना लिया। इस समय राया के आस-पास खोखन गोत्री जाट परिवारों का बाहुल्य था। अत: माखनसिंह ने इनकी पुत्री के साथ विवाह करके जातीय संगठन को सुदृढ़ किया। माखन सिंह ने साठ वर्ष में पर्याप्त शक्ति संचय तथा 87 ग्रामों की जागीर एवं स्वामित्व प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की।
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