संस्था के प्रबंधन में सक्रिय साझेदारी चलानी होगी ठीक उसी प्रकार कि जैसा प्रबंधन चीटियों में पाया जाता है। जहाँ यह पता ही नहीं चलता कि कौन किस को आदेश देता है। ऐसी सूझ-बूझ जहाँ छोटे-बड़े की बू न हो। संस्था के हित को ही सर्वोपरि रखकर आत्मदर्शी, सूक्ष्म संवेदी बनकर दूसरों के साथ स्वयं अपना भी मंथन करना होगा। उसके लिये अन्य कार्यकर्ताओं को सीमित बुद्धिमान कर, संस्था के विभिन्न शीर्षस्थ पदों पर जमे रहना और सारे निर्णय स्वयं लेना भारी भूल सिद्ध होगी।
रक्षा विभाग की भाँति जो युद्ध समय में तालमेल देखने को मिलता है। ठीक वैसा ही समन्वय हम को सभी सेवाओं में रखना होगा।
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