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सिंहावलोकन

राजा महेन्द्र प्रताप के विचारों की पूर्ण उच्चता समझ पाना असाधारण से असाधारण बौद्धिक क्षमतावानों के लिये भी असम्भव सा ही लगता है। जिस प्रकार हिमालय की एक शिखर चढ़ लेने पर आगे और बड़ी-बड़ी चोटियाँ दिखाई पड़ती जाती हैं। इसी प्रकार इस महामानव को समझ पाना है। खोजी विद्वान जितना पास जाना चाहता है महेन्द्र दर्शन उतना ही दूरस्थ दिखाई देता दिखता है अर्थात् वह अपनी बौद्धिक क्षमता से उक्त दर्शन को बहुत छोटा स्वरूप निरख पाना ही अपने में महसूस करता है। ज्ञात से अज्ञात की विशालता की मात्रा बढ़ती ही अनुभव में आती है।


उक्त महामानव इसका कारण यह बताते थे कि पहली कक्षा का विद्यार्थी उच्च कक्षा की पढ़ाई नहीं पढ़ सकता। आजकल सोचने का स्तर इतना नीचा है कि संसार में सुख शान्ति लाना असम्भव लगता है। उक्त दर्शन में मानव मात्र का कल्याण भरपूर है। एक विनाशक सृजनात्मक दृष्टि कोण को समझना कैसे सीखें। यह तभी संभव है जब उसका मनमस्तक धोकर शुद्ध किया जाये तथा सुजक विचार धारा भरी जाय। त्रिपथ पिटक सिद्धान्त इसी क्रिया का मूल सिद्धान्त है। यह धर्मों से राजनैतिक दलों से तथा समाज के वर्गो से लड़ने लड़ाने वाले विचारों को निकाल कर प्रेम तथा सहयोग के भाव उपजाता है।


इन महान विचारों को समझने वाला व्यक्ति ही सच्चा समाज सेवक बन सकता है। छोटा महान बड़े महान में सहज ही में मिलकर महानता की उच्चतम चोटी पर पहुँचता है। मैं सब में हूँ, सब मुझमें है। सबसे प्रेम करना मेरा कर्तव्य है।


राजा महेन्द्र प्रताप का उद्भव दासता की लौह एड़ियों के नीचे कराहते विश्व को त्राण दिलाने को था। सर्वलोक कल्याणार्थ धर्म के विशाल अश्वमेघ यज्ञ का सूत्रपात था जिसे पूरा करके ही मानवता सुख की सांस ले सकती है। त्रिपंथ पिटक सिद्धान्त के जनक राजा महेन्द्र प्रताप का जन्म भी अलौकिक था। पैर मातृका गर्भ से हपले निकले अर्थात् सिर नहीं पैर धरती माँ ने पहले छूये। यह संकेत था कि यह बालक जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी आसुरी शक्ति के आगे घुटने नहीं टेकेगा। मुगलों के सामने जो शासन में अत्याचार के पर्याय थे।


बचपन से लेकर अंतिम सांस तक इस नर पुरुष ने कभी हार नहीं मानी हिचकिचाहट भी नहीं दिखाई। युवा राजकुमार को भारत स्वतन्त्र कराने का साहस भरपूर था। जर्मनी से काबुल को आपकी प्रथम यात्रा के समय यूरोप के एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि एक यात्री जिसके नाम का पहला अक्षर म है वह अंग्ररेजों को ऐसे कुचल देगा जैसे मनुष्य सांप को। वह भारत की ओर कूच कर रहा है।


सन् 1914 में भारत मुक्ति अभियान के अंतर्गत पाया कि आंग्लों ने लगभग समूचे एशिया को अपने चंगुल में फंसा रखा है तो उन्होंने एशिया मुक्ति आंदोलन छेड़ा। तदुपरान्त संसार संघ की योजना बनाई। इस तरह मनुष्य जाति का भय मुक्त सुखी संयुक्त कटुम्ब बनाने को पूरा प्रयत्न किया। उन्हें अपने जीवनकाल में ही पर्ण सफलता मिली। अफगानिस्तान को तालिबान से मुक्त कराने को पूरा संसार एक था। यह राजा महेन्द्र प्रताप के विचारों और प्रचारों का ही प्रतिफल था।


प्रस्तुत महाकाव्य का शीर्षक 'महेन्द्र लोकमार्तण्ड' प्रभु महेन्द्र के त्रिपंथ, पिटक सिद्धान्त (प्रेम धर्म, संसार संघ एवं नवविचार विज्ञान) को इंगित करता तथा उसके लोक कल्याण भाव का सार्थक भाव चित्रण मात्र है। प्रेम धर्म तथा संसार संघ के बीच की दूरी को नवविचार विज्ञान सेतु बनाकर व्यवहारिक स्वरूप प्रदान करता है।


राजा महेन्द्र प्रताप विश्व को पूर्ण स्वतन्त्र देखने इकत्तीस साल सात माह तक अपने प्राण हथेली पर रखकर संसार की परिक्रमा करते रहे तथा विश्व को अपने अभूतपूर्ण विचारों के योगदान से चेतना प्रदान करते विजेता स्वरूप में भारत में प्रवेश आये। जिस अंगरेज ने उन्हें पकड़ने एड़ी से चोटी तक पसीना बहाये वह आँख उठाकर उनकी ओर देख भी न सका। देश छोड़ने से पूर्व भी उन्होंने भारत में आधुनिक कल कारखानों की शिक्षा की बुनियाद रखकर राष्ट्र को आर्थिक विकास हेतु गति दी थी।


महाकाव्य के इस अभूतपूर्व उपहार को मैं पाठकों के चिंतन मनन हेतु लोकार्पित करता हूँ। जो इस ईश्वरीय उपहार को ग्रहण करेंगे वे अपने जीवन को पूर्ण विकसित बनाने में सफलता प्राप्त करेंगे। मुझे प्रभु महेन्द्र प्रताप ने डेढ़ सौ वर्ष की आयु आशीर्वाद में प्रदान की।


अत: उन्यासी वीं साल में प्रवाश पाने पर मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ, महायोगी हूँ, कुण्डलिनी जगी हुई है। ऐसा अनुभव करता हूँ कि संसार की रचना प्रभु ने मेरे लिये ही सम्पूर्णानन्द प्रदान करने के लिये की है। दुख मृत्यु बुढ़ापा पर विजय प्राप्त कर दिग्विजयी स्वरूप में हूँ। जिस ज्ञान ने मुझे यह शक्ति प्रदान की उसी का लाभ मैं जनमानस तक पहुँचाने अपने प्रथम चरण के काव्य रस को ज्ञान के गरजते बादलों से मनुष्य जाति की शुष्क हृदय भूमि पर बर्षाता हूँ। अनेकों ज्ञान के बिरवा उगेंगे तथा संसार को पूर्ण प्रसन्नता की शीतल छाया प्रदान करेंगे। अपने मार्ग दर्शन गुरु राजा महेन्द्र प्रताप को शत्-शत् नमन।

विकीर्णकारी श्री शिव कुमार वर्मा (प्रेमी जी)
संरक्षक-नगर जाट सभा, वृन्दावन

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