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सोमवार, 9 सितंबर 2019

स्वतन्त्रता आन्दोलन के महान क्रान्तिकारी राजा महेन्द्र प्रताप का संक्षिप्त परिचय

राजा महेन्द्र प्रताप जी का जन्म दिसम्बर सन् 1886 ई. को अलीगढ़ जनपद के मुरसान राज्य में राजा घनश्याम सिंह जी के तृतीय पुत्र के रूप में हुआ था। आपको हाथरस के राजा हरनारायण सिंह जी ने गोद ले लिया था। राजा घनश्याम सिंह अत्यन्त ही वीर, पराक्रमी एवं साहसी पुरुष थे, वे शेर का शिकार आमने - सामने ताल ठोक कर करते थे। इसीलिये उनके पुत्र राजा महेन्द्र प्रताप की निर्भीकता उनके पिता की देन है।


राजा हरनारायण सिंह के दत्तक पुत्र होने के कारण महेन्द्र प्रताप एक साधारण बालक होते हुए भी युवराज थे और हाथरस राज्य के स्वामी थे। जब उनकी आयु 8 वर्ष थी उन्हें शिक्षा के लिये पब्लिक स्कूल भेजा गया, किन्तु कुछ समय पश्चात् सर सैय्यद अहमद खाँ द्वारा स्थापित मुहम्मदन ऐंग्लो औरियन्टल कॉलेजिएट स्कूल में प्रवेश दिलाया गया। सर सैय्यद उस समय के प्रसिद्ध सुधारक एवं शिक्षा प्रेमी थे। स्कूल में पढ़ते समय ही राजा हर नारायण सिंह की मृत्यु हो गई और राजा महेन्द्र प्रताप को ही रियासत की देखभाल का कार्य करना पड़ा।


राजा महेन्द्र प्रताप का विवाह कॉलेज में पढ़ते समय ही हो गया था। जींद राज्य से इनकी सगाई हुई और सोने का एक पर्स इन्हें दिया गया। दो स्पेशल ट्रेनों में बारात जींद राज्य की राजधानी संगरूर गई और जींद के महाराजा ने विवाह में पर्याप्त धनराशि व्यय की। जब कभी राजा साहब अपनी ससुराल जींद जाते तो इन्हें ग्यारह तोपों की सलामी दी जाती थी और स्टेशन पर स्वागतार्थ सभी अफसर उपस्थित रहते। सन् 1909 में प्रथम सन्तान के रूप में एक पुत्री पैदा हुई जिसका नाम 'भक्ति तथा सन् 1913 ई. में एक पुत्र पैदा हआ जिसका नाम 'प्रेम प्रताप' रखा।


देश-विदेश की सुदीर्घ यात्राओं ने राजा साहब के जीवन में एक नवीन परिवर्तन उत्पन्न किया। अपने देश की गुलामी से उनका मन अन्दर से खिन्न रहने लगा। एक तरफ राजा-महाराजाओं का भोग-विलास से भरा वैभवपूर्ण जीवन तथा दूसरी ओर दरिद्रता से परिपूर्ण किसानों, मजदूरों, कामगारों का व्यथापूर्ण जीवन उनकी आँखों में खटकने लगा। उन्हें अपने वैभवपूर्ण जीवन से वैराग्य पैदा हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि जब देश की 80 प्रतिशत जनता गरीबी में फंसी पराधीनता में कराह रही है, तो मुझे इस भोग विलास का क्या अधिकार है।


विदेश यात्रा के पश्चात् से राजा साहब के मन में एक ऐसे विद्यालय की स्थापना की भावना उत्पन्न हुई जिससे शिक्षा प्राप्त कर बालक लघु उद्योग-धन्धों के द्वारा स्वावलम्बी बन सकें। इसके लिये उन्होंने अपने आवास महल में ही विद्यालय खोलने का संकल्प किया, जिसमें उन्होंने तय किया कि नि:शुल्क शिक्षा दी जायेगी तथा गरीब बच्चों के आवास व भोजन की व्यवस्था भी नि:शुल्क होगी जिसे उन्होंने सन् 1909 ई0 में साकार रूप दिया।


श्रावण मास के झूला के समय तकनीकी विद्यालय की वृन्दावन में स्थापना हुई। विद्यालय का नामकरण संस्कार पुत्रोत्सव के समय नामकरण की विधि से किया गया। निमन्त्रण पत्र में पुत्र के नाम की बात लिखी गई थी। विधिपूर्वक यज्ञ किया गया जिसमें पं. मदनमोहन मालवीय भी सम्मिलित हुये। यज्ञ समाप्ति  पर जब मित्रों ने पुत्र को देखने की इच्छा व्यक्त की तो उन्हें यह जानकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि राजा साहब के कोई पुत्र नहीं है फिर यह नामकरण कैसा? सभी उपस्थित जनसमूह यह सुनकर स्तब्ध रह गया जब राजा साहब ने बताया कि मेरा मानस पुत्र यह विद्यालय है। इस विद्यालय का ही नामकरण होना है। मित्रों ने विद्यालय का नाम 'राजा महेन्द्र प्रताप विद्यालय' रखने का सुझाव दिया जिसे उन्होंने अस्वीकार करते हुए 'प्रेम महाविद्यालय' नाम रखा।


सन् 1911 ई. में महाविद्यालय को स्वावलम्बी बनाने के उद्देश्य से दूसरी बार यूरोप की यात्रा प्रारम्भ की। लन्दन, बकिंघम, लीड्स, शेफील्ड, मेनचेस्टर, एडनिवर्ग, ग्लासगो, पेरिस, बर्लिन एवं ज्यूरिख की यात्रा करके वहाँ की तकनीकी संस्थाओं का अवलोकन किया। विद्यालय का खर्च चलाने हेतु 36000 रु. वार्षिक आय के 5 गाँव दान स्वरूप दिये।


विदेश यात्रा से वापस आने के पश्चात् प्रथम विश्व युद्ध प्रारम्भ होने का समाचार राजा साहब को देहरादून से वृन्दावन आते समय रेलगाड़ी में प्राप्त हुआ। वृन्दावन पहुँचने के पश्चात् उन्होंने संकल्प कर लिया कि उन्हें चाहे कितना भी कष्ट उठाना पड़े, विदेश जाकर युद्ध की स्थिति को समझना तथा स्थिति का लाभ उठाकर भारत को स्ततन्त्र कराना है।


9 अगस्त सन् 1946 ई. को राजा साहब सिटी ऑफ पेरिस जहाज से मद्रास आये। आपने 31 साल 6 माह पश्चात् भारत में कदम रखा। आप मद्रास से सीधे वर्धा पहुँचे और महात्मा गाँधी से भेंट की। आपने सन् 1929 ई. में ही 'वर्ल्ड फैडरेशन मासिक पत्र' का प्रकाशन कराया। आपका त्याग, तपस्या, धैर्य सदैव स्मरणीय रहेगा।


आप सन् 1957 ई. से सन् 1962 ई. तक लोक सभा के सदस्य के रूप में निर्वाचित हुए। राजा साहब भारतीय फ्रीडम फाइटर एसोसियेशन (स्वतन्त्रता सेनानी संगठन) के ' अध्यक्ष भी रहे तथा अखिल भारत वर्षीय जाट महासभा के प्रधान पद को भी सुशोभित किया। आपने अपने प्रेम-धर्म सिद्धान्त के आधार पर सभी को प्रेम से रहने का उपदेश दिया। वर्तमान में भी वर्ल्ड फैडरेशन समाचार-पत्र द्वारा आपके प्रेमधर्म के सिद्धान्तों को घर-घर पहुँचाया जा रहा है। आप 29 अप्रैल सन् 1979 ई. को अपना पार्थिव शरीर त्याग कर इस संसार से स्वर्ग पधार गये।

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