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शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2019

गीता सार

क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो ? किससे व्यर्थ डरते हो ? कौन तुम्हें मार, सकता है ? आत्मा न पैदा होती है, न मरती है।


जो हुआ, वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है। जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा। तुम भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिन्ता न करो। वर्तमान चल रहा है।


तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो ? तुम क्या लाये थे, जो तुमने खो दिया ? तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया ? न तुम कुछ लेकर आये, जो लिया यहीं से लिया, जो दिया यहीं पर दिया। जो लिया इसी ( भगवान ) से लिया, जो दिया इसी को दिया। खाली हाथ आए, खाली हाथ चले। जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, परसों किसी और का होगा। तुम इसे अपना समझकर मग्न हो रहे हो। बस यह प्रसन्नता ही तुम्हारे दु:खों का कारण है। 


परिवर्तन ही संसार का नियम है। जिसे तुम मृत्यु समझते हो, वही तो जीवन है। एक क्षण में तुम करोड़ो के स्वामी बन जाते हो। दूसरे ही है क्षण में तुम दरिद्र हो जाते हो। मेरा तेरा, छोटा बड़ा, अपना पराया मन से मिटा दो, विचार से हटा दो, फिर सब तुम्हारा है, तुम सबके हो।


न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम इस शरीर के हो। यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश से बना है और इसी में  मिल जायेगा। परन्तु आत्मा स्थिर है, फिर तुम क्या हो? तुम अपने आपको भगवान को है अर्पित करो। यह सबसे उत्तम सहारा है। जो इसके सहारे को जानता है, वह भय, चिन्ता, शोक से सर्वदा मुक्त है।


जो कुछ भी तू करता है, उसे भगवान को अर्पण करता चल। ऐसा करने से तू सदा जीवन-मुक्त आनंद का अनुभव करेगा।

बुधवार, 18 सितंबर 2019

चेतावनी विचार करें मनन करें

वस्तुओं और धन आदि में जो सुख दीखता है एवं सुख की आशा करते हैं, तो क्या उनमें पूरा सुख है। क्या उनके सम्बन्ध से कभी दु:ख होता ही नहीं। क्या वे सदा रहेगे ? क्या उन वस्तुओं के रहते हुए दु:ख होता ही नहीं ? ऐसा तो हो ही नहीं सकता


प्रत्यत्त उन वस्तुओं के सम्बन्ध से - अपनी मानने से लोभ-जैसा नरक-द्वाररूप भयंकर दोष उत्पन्न हो जाता है, जो जीते-जी आग की तरह जलाता ही रहता है और मरने पर सर्प आदि दु:खद योनियों तथा महान् यन्त्रणामय नरकों में ले जाता है। 


इसी प्रकार आप अपने घर के निजी प्राणियों से सुख चाहते हैं, तो  क्या वे सभी सुखी हैं ? क्या कभी दु:खी नहीं होते ? क्या वे सभी आपके साथ रहते भी हैं ? क्या रहना चाहते भी हैं ? क्या वे सभी आपके साथ रह भी सकते हैं ? क्या पहले वाले साथी सभी आपके साथ हैं ? क्या उनके मनों में और शरीरों में परिवर्तन नहीं होता है ? क्या उनमें से किसी के मन में किसी प्रकार की कमी का बोध नहीं के होता ? क्या वे सर्वदा सर्वथा पूर्ण हैं ? क्या वे सभी किसी से कुछ भी नहीं चाहते हैं ? कम से कम आपसे कुछ नहीं चाहते होंगे, सोचिये! 


जो दूसरों से अपने लिए कुछ भी चाहता है, क्या वह दूसरों की चाह पूरी कर सकता है ? क्या खुद सुख चाहने वाला औरों को सुख दे सकता है ?


सबका हर समय वियोग हो रहा है। आयु पल-पल में घट रही है। मृत्यु प्रतिक्षण समीप आ रही है। यह बातें क्या विचार से नहीं दिखती हैं ? अगर कहें कि हाँ, दिखती है तो ठीक तरह से क्यों नहीं देखते ? कब देखेंगे, किसकी प्रतिक्षा कर रहे हो ? क्या इस मोह में पड़े रहने से आपको अपना भला दिखता है ? अगर नहीं तो आपका भला कौन करेगा, किसके भरोसे बैठे हो। बतायें तो सही, ऐसे कब तक काम चलेगा ? कभी सोचा है ?


कब सोचोगें आपका साथी कौन है ? क्या यह शरीर, जिसे आप मेरा कहते हैं 'मैं' भी कह देते हैं, आपकी इच्छा के अनुसार निरोग रहेगा। क्या जैसा चाहें वैसा काम देगा ? क्या सदा साथ रहेगा, मरेगा नहीं, बतलाईये! इस तरफ आपने अपनी विवेक-दृष्टि से देखा भी है ? कब देखेंगे ? क्या इस विषय में अपरिचित ही रहना है ? क्या यह बुद्धिमानी है ? क्या इसका परिणाम और कोई भोगेगा ? चेत करे।


पहले आप जिन वस्तुओं और कुटुम्बियों के साथ रहे हैं, वे सब आज हैं क्या ? एवं आज जो आपके साथ हैं, वे रहेंगे क्या ? वे सब-के-सब सदा साथ रह सकते हैं क्या ? जरा थोड़ा ध्यान दें, विचारें तो सही!


यदि आप ठीक विचार करेंगे तो आपको ज्ञान हो जायेगा कि सदा साथ रहने वाले तो केवल एक वे परम कृपामय परमात्मा ही हैं अतः आपको उन्हीं के चरणों की शरण लेनी चाहिए।


संकलनकर्ता  


कन्हैया चौधरी, वृन्दावन, मथुरा 

शनिवार, 14 सितंबर 2019

पंचामृत

1. हम भगवान के ही हैं। 


2. हम जहाँ भी रहते हैं, भगवान के ही दरबार में रहते हैं। 


3. हम जो भी शुभ काम करते हैं, भगवान का ही काम करते हैं। 


4. शुद्ध सात्त्विक जो भी पाते हैं, भगवान का ही प्रसाद पाते हैं। 


5. भगवान के दिये प्रसाद से भगवान के ही जनों की सेवा करते हैं।


संकलनकर्ता  


कन्हैया चौधरी, वृन्दावन, मथुरा 

अमृत बिन्दु

जिसको हम सदा अपने पास नहीं रख सकते, उसकी इच्छा करने से और उसको पाने से क्या लाभ।


जो दूसरों की सेवा नहीं करता और भगवान को याद नहीं करता, वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी ही नहीं है।


अपने लिए सुख चाहने से नाशवान सुख मिलता है और दूसरों के को सुख पहुंचाने से अविनाशी सुख मिलता है।


विचार करो, क्या ये दिन सदा ऐसे ही रहेंगे।


चेत करो! यह संसार सदा रहने के लिए नहीं है। यहाँ केवल मरने-ही-मरने वाले रहते हैं फिर पैर फैलाये कैसे बैठे हो ?


शिष्य दुर्लभ है, गुरू नहीं। सेवक दुर्लभ है, सेव्य नहीं। कज्ञासु दुर्लभ है, ज्ञान नहीं। भक्त दुर्लभ है, भगवान नहीं।


संसार विश्वास करने योग्य नहीं है, प्रत्यत सेवा करने योग्य है। 


जैसे मनुष्य शरीर बार-बार नहीं मिलता, ऐसे ही मनुष्य शरीर मिलने पर भी सत्संग बार-बार नहीं मिलता।


संसार का काम तो और कोई भी कर लेगा, पर अपने कल्याण का काम तो खुद को ही करना पड़ेगा, जैसे भोजन और दवाई खुद को ही लेनी पड़ती है। 


संसार के काम में तो नफा और नुकसान दोनों होते हैं, पर भगवान के काम में नफा-ही-नफा होता है, नुकसान होता ही नहीं।


पारमार्थिक उन्नति करने वाले की लौकिक उन्नति स्वत: होती है। 


कुछ भी लेने की इच्छा भयंकर दु:ख देने वाली है।


आप अपनी अच्छाई का जितना अभिमान करोगे, उतनी ही बुराई पैदा होगी। इसलिए अच्छे बनो, पर अच्छाई का अभिमान मत करो।


संकलनकर्ता  

कन्हैया चौधरी, वृन्दावन, मथुरा 

गुरुवार, 12 सितंबर 2019

प्रेरक प्रसंग : सेवायुक्त समर्पण

आँधी ने मन्द वायु से कहा - 'शक्तिवान बनने में ही गौरव है, मैं जब अपने आवेश के साथ चलती हूँ तो पेड़ उखड़ जाते हैं, प्राणियों की मेरे सामने ठहरने की हिम्मत नहीं होती। सभी अपना बचाव करने के लिये छिपते-फिरते हैं। जिन्दगी ऐसा जीनी चाहिए कि लोग उसका लोहा माने और डरते रहें।'


मंद वायु बोली - 'दीदी तुम सामर्थ्यवान हो। जो चाहो सो कर सकती हो, पर मुझे इसमें ही आनन्द आता है। धीमी चलती हूँ ताकि किसी को कष्ट न हो, निरन्तर बहती हूँ ताकि सेवा के आनन्द से क्षणभर के लिये भी वंचित न रहना पड़े। मुरझाए चेहरों पर शीतल सुगंधित पंखा झलते हुए जो संतोष प्राप्त होता है, मेरे लिये वही सब कुछ है। तुम्हें शक्ति का हर्ष प्रिय लगता है, पर मेरे लिए तो सेवायुक्त समर्पण ही सब कुछ है।'

अपने आपको लोगों की पसन्द बनायें

ज्यादातर मामलों में पसन्द किये जाने के तत्व को तकनीकी योग्यता से ज्यादा महत्व दिया जाता है। जैसे कि इसके साथ काम करना पसन्द नहीं है। या उसके साथ जाना, बैठना या बात करना मुझे पसन्द नहीं आदि हर रोज दस में से नौ बार पसन्द किये जाने की बात सबसे पहले की जाती है। इसलिये अपने आपको लोगों की पसन्द बनायें। अपने आपको लोगों में पसन्दीदा बनाने के दस सूत्र हैं।


1. नाम याद रखने की आदत डाले अगर आप ऐसा नहीं करते हो तो सामने वाले को यह लग सकता है कि आपकी उनमें कोई रुचि नहीं है।


2. एक ऐसे आरामदेह व्यक्ति बनिये जिसके आप के साथ होने पर कोई तनाव में न रहे एक खुश मिजाज अनुभवी टाईप के आदमी बनिये।


3. अपने दिमाग को ठण्डा करने की आदत डालिये ताकि कठिन परिस्थितियाँ आपको उत्तेजित या परेशान न करें क्योंकि बुद्धिमान मनुष्य अपने दिमाग का मालिक होता है और मूर्ख उसका गुलाम।


4. बड़बोले मत बनिये सामने वाले को यह एहसास न होने दें कि आप खुद को सर्वज्ञानी समझते हैं। 


5. दिलचस्प बनने की आदत डालिये ताकि लोग आपके आसपास रहना पसन्द करें। 


6. अपने व्यक्तित्व से चुभने वाले तत्वों को बाहर निकाल फेंकिये।


7. सच्ची धार्मिक भावना से हर गलत फहमी को दूर करने की पूरी कोशिश करें अपनी शिकायतों को नाली में बहा दें।


8. लोगों को पसन्द करने का अभ्यास करें और कुछ समय बाद आप सचमुच उन्हें पसन्द करने लगेंगे।


9. किसी उपलब्धियों या सफलता पर बधाई देने का कोई भी पल मत गँवाइये नहीं द:ख या निराशा में सम्वेदना जताने का अवसर खोइये।


10. लोगों को आध्यात्मिक शक्ति दीजिये और वे आपको पसन्द करने लगेंगे।



श्री राधेश्याम चौधरी

बुधवार, 11 सितंबर 2019

तैमूर लंग आक्रांता को मारने वाले जाट सेनापति चौधरी हरबीर सिंह गुलिया

बात 1363 की है जब तैमूर लंग ने भारत में पंजाब के रास्ते भारत में घुसा तो जाटों के ये आभाष हो गया था कि तैमूर लंग पंजाब के बाद सीधा उत्तर प्रदेश पर आक्रमण करेगा क्यों कि उत्तर प्रदेश उस समय भी काफी समृद्ध राज्य था।


उसी वक्त जाटों ने तैमूर लंग से निपटने के लिए सेना तैयार की जिसमे करीब चालीस हजार महिलाएं भी थीं जो सभी शस्त्रों से सुसज्जित थीं। महिलाएं दिन में तैमूर लंग की सेनाओं से युद्ध करतीं और रात में वे अपनी सेना के लोगों के लिए खाना बनातीं थीं। 


तैमूर लंग की सेना दिन में युद्ध करके थक जाती थी परन्तु जाट तो रात में भी उनसे युद्ध करते रहते थे।  हरिद्वार के करीब पथरीगढ़ (ज्वालापुर) में जाटों का और तैमूर लंग के बीच घमासान युद्ध हुआ और तैमूर लंग की सेना के दाँत खट्टे कर दिए। 


तैमूर लंग को समझ में आ गया कि जाटों से युद्ध में पार पाना असंभव है और उसकी सेना युद्ध के मैदान से भाग खड़ी हुई लड़ाई के दौरान ही जाट सेना के सेनापति हरबीर सिंह गुलिया ने तैमूर लंग की छाती पर अपने भाले से ऐसा वार किया कि वो घायल होकर घोड़े से गिर गया और युद्ध के मैदान से भाग गया। उस भाले का वार इतना तीव्र और गहरा था कि समरकंद के रास्ते में ही तैमूर लंग की मृत्यु हो गयी और कुछ लोगों का मानना है कि उसने समरकंद में जाकर तैमूर लंग की मृत्यु हुई थी। 


तो भाइयो ऐसे हैं हमारे  जाट वीर इसलिए जब जाट समाज एक हो जाता तो फिर किसी भी आक्रांता या अत्याचारी की इतनी हिम्मत नहीं कि भारत की तरफ कोई आँख उठा कर देख सके। 

तपश्या का प्रभाव एक लघु कथा

जंगल में एक ऋषि तपस्या कर रहे थे। एक दिन पेड़ पर बैठी एक चिड़िया ने उन पर बीट कर दी। ऋषि ने नेत्र खोल क्रोध से चिड़िया की ओर देखा। दृष्टि की तप से चिड़िया जलकर राख हो गई। ऋषि बहुत प्रसन्न हुए। गर्व से झूमते ऋषि भिक्षा के लिये नगर की ओर चल पड़े। एक घर के द्वार पर भीख की अलख जगाई। ऋषिवर-जरा प्रतीक्षा करें। 


ऋषि ने कुछ देर बाद फिर अलख जगाई। प्रभु में पति को भोजन करा रही हूँ, पूर्ण होते ही द्वार पर आती हूँ, अन्दर से आवाज आयी। ऋषि क्रोध से लाल-पीले हो गये। पति के सामने मेरी उपेक्षा। गुस्से से थर-थर काँपते कमण्ड से हाथ में जल ले ऋषि श्राप देने वाले ही थे कि अन्दर से नारी के हँसने की आवाज आई। मुझे भी क्या चिड़िया समझ लिया है कि आपके श्राप से भस्म हो जाऊँगी?


ऋषि हैरान रह गये। जंगल में घटी घटना के बारे में इस गृहस्थ नारी को कैसे पता चला। तब नारी ऋषि के लिये भिक्षा लेकर द्वार पर आ गयी। ऋषि ने उससे पूछा । नारी ने कहा जबाव चाहिये। तो बाजार में कसाई की दुकान पर चले जाओ। कसाई जबाव देगा।


ऋषि कसाई के पास पहुँचे, उन्हें देखते ही कसाई हँसा, उस बहन ने आपको मेरे पास भेज दिया। क्षणभर बैठो इस ग्राहक को माँस तोलकर दे दूँ फिर आपसे बात करूँगा। कसाई ने अपना काम खत्म कर हाथ पोंछा और ऋषि से बोला-पूछिये आप क्या पूछना चाहते हैं? 


ऋषि बोले-हमने वर्षों में तपस्या की और वरदान में पाया की जिसकी ओर भी क्रोध से देख लें वह भस्म हो जाये। पर नगर की वह साधारण स्त्री जंगल में चिड़िया के भस्म होने की बात घर बैठे-बैठे कैसे जान गई। तुम दुकान पर बैठे-बैठे कैसे जान गये कि उस नारी ने हमें तुम्हारे पास भेजा है।


कसाई बोला-सृष्टि का एक नियम है कि आत्मा शरीर धारण करके संसार में आती हैं। उसके समाज और परिवार के प्रति दायित्व होते हैं। जिनका वह निर्वाह करता है। आप संसार पर परिवार के प्रति कर्तव्यों से मुख मोड़कर जंगल के एकान्त में तप करने चले गये। बिना यह सोचे कि आपके न होने से आपके परिवार पर क्या बीती होगी। पर बदले में क्या पाया क्रोध और अहंकार से बढकर किसी के प्राण लेने का वरदान। लेकिन किसी के प्राण लेना तो बहत आसान है, किसी को प्राण देकर दिखाइये। ऋषि चुपचाप कसाई के बात सुनते रहे।


कसाई आगे बोला-जिस नारी को आप साधारण गृहस्थन समझते हैं वह अपने परिवार और पति के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने के कारण सही मायने में तपस्वी है। आप मेरे काम को नीच समझते हैं, लेकिन यह मेरी आजीविका का साधन है। जिसके माध्यम से मैं अपने परिवार का भरण-पोषण करता हूँ। मैं पूरी ईमानदारी से अपना काम करता हूँ। ग्राहक मेरी प्राथमिकता है। ईमानदारी से काम और संसार के प्रति कर्तव्यों का पालन करना ही सच्ची तपस्या है।

मंगलवार, 10 सितंबर 2019

सज्जनता का सीरप

यदि आप सज्जन बनना चाहते हैं तो निम्न लिखित काढ़े का सेवन करने से आपके जीवन में शीघ्रातिशीघ्र सज्जनता आ सकती है।


आवश्यक सामिग्री:

सच्चाई के पत्ते एक तोला, ईमानदारी का जड़ ढाई तोला, उदारता का अर्क एक बड़ी चम्मच, परोपकार का बीज तीन तोला, रहम दिल का छिलका दो तोला, दानशीलता का सिरका तीन चम्मच, सत्संग का रस एक बड़ी चम्मच।


बनाने की विधि:

इन सभी सामिग्री को परमात्मा की हाँढ़ी में पकाकर, शुद्ध मन के कपड़े से छानकर, मस्तिष्क की शीशी में भर लें।


सेवन विधि:

इसको प्रतिदिन संतोष के गुलकन्द के साथ, इन्साफ की चम्मच से तीन बार सुबह, दोपहर, शाम को लें।


परहेज:

क्रोध की मिर्च, अहंकार का तेल, स्वार्थ का घी, धोखे का पापड़ इन सबसे परहेज करना है।



परिवार वही जिन्दा है जिसका इकलास जिन्दा है।
साहूकार वही जिन्दा है जिसका विश्वास जिन्दा है।।


ये जिन्दगी की निशानी होती है दोस्तों।
कौम वही जिन्दा है जिसका इतिहास जिन्दा है।।

अच्छा लगे तो बढ़िया वरना हंसने में क्या हर्ज है

एक बार एक चिड़िया ने कुछ हटकर करने की सोची और भंयकर जाड़े में निकल पड़ी ध्रुवों की ओर। रास्ते में उससे सर्दी सहन न हुई और उसके पंख अकड़ने लगे। धीरे-धीरे उसके पूरे शरीर पर बर्फ की परत जम गई और वह सर्दी से बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ी।


तभी एक घोड़ा वहाँ से गुजरा और उस पर अपना बहुत सा चारा गिराकर चला गया। चारे की गर्मी से चिड़िया को होश आ गया और वह जान बचने की खुशी के मारे चहकने और गाने लगी।


उसी वक्त वहाँ से एक बिल्ली गुजर रही थी। उसने सड़क पर पड़े चारे के ढेर के नीचे से आती चिड़िया की आवाज सुनी और चारा हटाकर चिड़िया को एक ही बार में खा डाला। 

1. अपने लक्ष्य हमेशा अपनी सामर्थ्य के अनुसार बनायें।


2. जिसके कारण आप अचानक किसी बोझ से दब जाते हैं, वह जरूरी नहीं कि आपका दुश्मन ही हो।


3. जो आपको उस बोझ से मुक्त करता है, वह जरूरी नहीं कि आपका भला चाहता हो।


4. अगर आप भूसे (चारा) जैसे बेवकूफों के बीच में हैं और खुश हैं, तो बेहतर है कि अपना मुँह बन्द रखें।


संकलनकर्ता - श्री राधेश्याम चौधरी